Friday, April 1, 2016

(30) "कविता"

किस रँग की मसि करूँ,
किस रँग से कहूँ कविता,
किस रँग में मैं हँसूं हँसी,
किस रँग में ख़ुशी मना लूँ,

किस रँग में समा जाऊँ मैं,
किस रँग में तुझे भिगो दूँ,
किस रँग का है तुझको यकीं,
किस रँग का विश्वास दिला दूँ,

किस रँग में ख़ुद को डुबा दूँ,
किस रँग में आनंद बसा दूँ,
किस रँग को धुएँ में उड़ा दूँ,
किस रँग में खो जाऊँ सदा।
- अनामिका

Thursday, March 31, 2016

"सैलानी परिंदे"

लंबी दूरी की यात्रा पर निकलने से पहले सैलानी परिंदे क्या-क्या तैयारी करते हैं एक बानगी:-
1. आकाश में सूरज व तारों की स्थिति देखकर सही वक़्त चुनते हैं।
2. धरती के चुम्बकीय क्षेत्र से सही दिशा का निर्धारण करते हैं।
3. पुराने पँख गिरा देते हैं, नए पँखों के आने का इंतज़ार करते हैं।
4. ख़ुराक बढ़ा देते हैं ताकि यात्रा के दौरान कम भोजन से भी काम चल सके।
5. हवा की धारा की दिशा में उड़ते हैं ताकि डैनों का कम इस्तेमाल करना पड़े।
6. अँग्रेज़ी के V आकार के समूह में उड़ते हैं। अगले सिरे पर उड़ने वाले पर सबसे अधिक बल लगता है, अतः उसका स्थान बारी-बारी से दूसरे पक्षी ले लेते हैं। (संगठन में शक्ति है)
7. प्रवास के दौरान प्रजनन नहीं करते। ☺
[सुर्खाब चकवा (ब्राह्मणी डक), लालसर (रेड क्रेस्टेड पोचार्ड), साइबेरियन क्रेन]
(कक्षा 6 की हिंदी की पुस्तक के पाठ पर आधारित)
मेरे द्वारा बच्चे को हिंदी भाषा से परिचित रखने के प्रयास

(29) "आचमन करूँ"

सुमनों से सुरभित शाम लिखूँ,
या सुरमई सी एक रात लिखूँ,

मन उपवन का आनंद लिखूँ,
या तारों भरा आकाश लिखूँ,

सुरों से सजीला राग लिखूँ,
या कोई फागुनी फाग लिखूँ,

रंगों का कारोबार करूँ,
या तुम्हें गुलाल से लाल करूँ,

धानी रंग की मैं चूनर ओढूँ,
या रंग बसंती में तुम्हें ढ़कूँ,

बादामी रंग की लहर बनूँ,
या रुपहली सी चमकार बनूँ,

बैंगनी रंग का वृक्ष बनूँ,
या अँगूरी रंग की लता बनूँ,

नारंगी या लाल पलाश बनूँ,
या थोड़ा सा सुनहरा उठा लूँ,

हिमसागर सा हल्का नील बनूँ,
या जग सरिता सी मलीन दिखूँ,

(ईश्वर मेरे)
सब रंग तुमसे ही छीनूँ,
इन रंगों से आचमन करूँ।








Saturday, March 19, 2016

(3E) "Little delight"

When will be the end of sleepless night,
When will I see the stars so bright,

When will there be the end of my plight,
When will my heart feel really light,

When will there be the end of this slight,
When will I catch the important flight,

When will I see the brightness of sight,
When will you know that I am of might,

When will you understand I was also right,
When will somehow you get that insight,

When will I could get a little delight,
When will you know that I am alright.

Wednesday, March 16, 2016

"प्रेम के बारे में" (5)

आप उम्रदराज़ हो चुके हैं और आप समझते हैं कि प्रेम के बारे में आप सबकुछ जानते हैं। क्या आपको लगता है कि प्रेम ज्ञान का विषय है और आप इसे उम्र के साथ सीखेंगे, क्योंकि ज्ञान तो अनुभवजन्य है ? क्या आपको लगता है कि यह सही दृष्टिकोण है ?
शायद नहीं।
प्रेम इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय नहीं है अतः आप इसे समझने में चूक जाते हैं, सारी उम्र लगे रहते हैं इसकी ख़ोज में फ़िर भी हाथ ख़ाली रह जाते हैं। क्यों होता है ऐसा?
कुछ रिश्तों में आप अपना समय, पूँजी और भावनायें सब तिरोहित कर देते हैं परंतु अंत समय में उन रिश्तों से जो आपकी अपेक्षायें थीं वह पूरी नहीं होतीं हैं और आप इस दुनिया से अतृप्त चले जाते हैं। आप जानते हैं कि मैं ग़लत नहीं कह रही हूँ।
यहाँ आप मर्म समझ गये होंगे, कि जो प्रेम अपेक्षा के साथ होगा वह दुःख का कारण अवश्य बनेगा।
प्रेम में आपकी अपेक्षा होती है कि कोई आपको प्रेम करे, यह चाहना ही कष्ट का कारण है। आप अपनी स्वयं की प्रेम कर सकने की क्षमता से कितने परिचित हैं ? परिचित हैं भी या नहीं ? कहीं आप सौदेबाज़ी तो नहीं कर रहे हैं, कि तुम फलाँ तरह से बर्ताव करोगे/करोगी तब ही प्रेम होगा नहीं तो नहीं। यह तो किसी तरह से प्रेम नहीं है। यह आपके मन में बसा हुआ वह काल्पनिक स्वरुप है जिसे आप कल्पना में ही प्रेम कर रहे हैं और उसे वास्तविकता में देखना चाहते हैं। जबकि वास्तविकता तो वास्तविकता होती है।
- अनामिका

Wednesday, March 9, 2016

(28) "पता नहीं क्यूँ डरती हूँ।"

स्नेह नहीं लगता है कोमल,
आँसू भी हैं कम ख़ारे,
नेह अब छलकता नहीं,
रिक्त हैं यह कुंभ सारे,

सड़ी हुई लकड़ी होती तो,
उग आते कुछ मशरूम,
किल्ले नहीं फ़ूटेंगे इसमें,
जान नहीं है ज़रा बाकी,

मन की अंतहीन गहराइयों में,
लगाती हूँ इक पुकार,
टकराकर आती नहीं वापस,
खो जाती है वहीं कहीं,

पल-पल बदलते हालातों से,
सिमटते जज़्बातों से,
बढ़ते हुये फ़ासलों से,
ख़ुद के मिट जाने से,
पता नहीं क्यूँ डरती हूँ।
- अनामिका

Monday, February 29, 2016

"जीवन की गति"

अपने चारों ओर नज़र दौड़ाइये और आप पायेंगे कि जीवन की एक विशेष गति होती है। हर शहर, हर गाँव, हर देश की एक ख़ास गति। हम उस प्रवाह से अलग़ नहीं हैं। क्योंकि हम उस प्रवाह से अलग़ नहीं हैं, अतः जिस समय, स्थान और काल में हम उपस्थित हैं वहाँ हमारी अनुपस्थिति से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है। जो लोग आज आपके जीवन में हैं, जब वे नहीं थे तब भी आपका जीवन चल रहा था, जब वे नहीं होंगे तब भी आपका जीवन (यदि बाकी है तो) चलेगा। यही बात दूसरों पर भी लागू होती है, आप नहीं होंगे तब भी जीवन चलेगा, अपनी विशेष गति से। आपके पास अपने कर्मों का निर्वाह करते चले जाने के अतिरिक्त विशेष कोई अधिकार नहीं है। जो व्यक्ति इस सत्य से साक्षात्कार कर लेते हैं उनके लिये जीवन थोड़ा आसान हो जाता है।
अपने किये गये कर्मों पर भरोसा रखिये, प्रतिफल अवश्यम्भावी है, न रत्तीभर भी कम न ज़्यादा। धैर्य के साथ समय की प्रतीक्षा कीजिये।